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Munawar Faruqui

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अब नहीं है हम चिरागों के मोहताज, उसकी आँखें महफिले रोशन करती हैं, मै किताबें फिर से अलमारी मे रख आया हूँ सुना है वह बा कमाल इन्सान पढ़ती है

वो राज की तरहा मेरी बातों मे था जुगनू जैसे मेरी काली रातों में था किस्सा क्या सुनाऊ तुम्हे कल रात का सितारों की भीड़ मे, वो चाँद मेरे हाथों में था

मेरी कलम मेरी खुव्वत चाहे मंज़िल लिखदूं मेरी हुकूमत में, लहरों पे समंदर लिख दू दम इतना मे मस्त रहता खुद ही मे खुद की ही पेशानी पे कलंदर लिख दू

खड़ा बुलंदी पे खुदा लाख शुक्र करू आमाल खास नहीं तो आखिरत कि फ़िक्र करू उसको शायद पसंद है मेरा टूटना मुसीबत भेजता है, ताकि उसका जिक्र करू

बता दो  बाजार कोइ, जहां मुझे वफा मिले यहाँ मै बेचूँ खुशी और गम साला नफा मिले मै बेचता नही जमीर खुदा के खौफ से वरना सौदा करने वाले तो कई दफा मिले

मेरे गम को हसी में दबा बैठा है राहतों का दौर अपनी राहों में लुटा बैठा है वो क्या ज़लील करेगा मेरी जात  को जब कि मेरा खुदा मेरे गुनाहे  छुपा बैठा है

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